ऐ मेरी प्रियतमा,
क्यों हो जाती हो
नाराज़ मुझसे,
यूँ ही
कभी कभी?
क्या मैंने
समझा नहीं
यूँ ही?
या तुमने
समझाया नहीं
यूँ ही?
समझ सकूँ इस बार,
बस इतना प्रीत
दे दो
यूँ ही,
मना सकूँ फिर इस बार,
बस इतना मीत
दे दो
यूँ ही…
बन जाओ ना कभी,
वो मोड़,
फिर एक बार,
जहाँ धीमे होकर,
ठहर सकूँ तुममें,
थाम लो मेरा हाथ
फिर एक बार,
यहाँ आकर,
कि लौट सकूँ मुझमें।
फिर एक बार,
देखो ना,
उन आँखो से शर्माते,
“मौसम” भी तो बदला आज,
इठलाते, बलखाते।
कर लो ना,
फिर एक बार,
वो बातें, मुस्काते।
कट जाएगी जिंदगी
“यूँ ही” गुनगुनाते।