फिर भी ये मलाल क्यों?

यूं गुमशुम सा मैं, न था कभी,
हूं आज बेबस, न था कभी,
काश कि जीता, जी भरके मैं,
न होता ऐसा, न था कभी।

क्यूं मैंने, व्यर्थ किया,
फ़ुरसत के वो पल,
जिनपर था हक अपनों का,
फिर न मिले वो कल।

सोच मेरी थी इस पल में,
कर दूं दो और काज,
कल की कल सोचेंगे,
पूरा कर लूं आज।

बिता दिया आधा जीवन,
दफ्तर के बंद दरवाजे में,
पूरा किया मालिक का सपना,
खुशामद हुआ, अनजाने में।

सोचता था, ये सब मेरे,
उन्नति के रास्ते हैं,
मिलेगी खुशी फिर कभी मुझे,
ये सब मेरे वास्ते हैं।

क्या कुछ नहीं मेरे पास,
फिर भी ये खयाल क्यों,
हो गया अब बूढ़ा मैं,
फिर भी ये मलाल क्यों?

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