चंदा (कहानी सीरीज, भाग – 3) से आगे…
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नंदू… उठो बेटा। सुबह के 9 बज चुके हैं। मम्मी ने दरवाजा खटखटाया और फिर कहा… उठ जाओ बेटा।
हां मम्मी, उठ गया अब तो (दरवाजा खोलकर मैंने कहा)।
नंदू, पापा तो ऑफिस चले गए हैं। तुम भी जल्दी से तैयार हो जाओ और नाश्ता कर लो। फिर तुमने कहा था कि आज मार्केट जाओगे अपने नए बिजनेस के लिए सामान देखने। पापा से बोल दूं क्या, किसी को ऑफिस से तुम्हारे साथ जाने के लिए भेज दें। तुम्हारे लिए ये शहर नया है, कहां भटकते रहोगे।
नहीं मम्मी, जरूरत नहीं है। मैं पहले गोविंदपुरा चला जाऊंगा, फिर वहां से ठठेरी बाजार होते हुए कुंज गली। कुंज गली में बहुत सारे गद्दीदार हैं (पारंपरिक ट्रेडर्स- जिनकी कई पीढ़ियां यही काम कर रहीं हैं) जो सिल्क (रेशम) और ब्रोकेड (जरी वस्त्र) का थोक व्यापार करते हैं। वहां से मुझे अच्छी क्वालिटी का सारा सामान अपेक्षाकृत सस्ते में मिल जाएगा। वहीं मेहरोत्रा जी की बहुत बड़ी दुकान है। उनके यहां तो लगभग सारा सामान मिल जाएगा।
मम्मी अपनी भौंहों में गांठ लगाकर बड़ी हैरानी से ये सब सुन रहीं थी। उन्होंने मुझे बीच में ही टोककर पूछा… नंदू, बेटा तू कब आया वाराणसी, तुझे ये सब कैसे पता?
एकदम से जैसे आंखों के सामने अंधेरा सा छा गया। मैं आंखें बंदकर और अपने माथे को पकड़कर वहीं सोफे पर बैठ गया।
नंदू, बेटा ठीक तो हो न तुम। लो, ये लो पानी पी लो। तुम्हें थोड़ा अच्छा लगेगा। हां, मम्मी, अब थोड़ा बेहतर महसूस कर रहा हूं। बेटा… तू तो कभी भी चित्रकूट से बाहर गया ही नहीं, तो फिर ये सब कैसे पता तुझे?
पता नहीं मम्मी। ओह, सिर में काफी तेज दर्द है। चल तू लेट जा थोड़ी देर, मैं बाम लगा देती हूं।
थोड़ी देर आराम करने के बाद… अच्छा मम्मी, अब मैं ठीक हूं, चलता हूं मार्केट, काफी लेट हो गया हूं। ठीक है बेटा, ख्याल रखना अपना और जल्दी आ जाना। हां मम्मी।
कुंज गली चौक पहुंचकर… क्यों भैया, यहां कहीं मेहरोत्रा जी की दुकान थी न… किस तरफ है? (मैंने एक पान वाले से पूछा)। जी उस तरफ, वो जो हनुमान जी का मंदिर है न, उसके बगल से ही है। जी शुक्रिया।
मैं हनुमानजी के दर्शन करने के बाद मेहरोत्रा सिल्क स्टोर चला गया। दुकान के गल्ले पर मेरी ही उम्र (लगभग 24-25 साल) का एक युवक बैठा था। मुझे देखकर उसने मुस्कुराकर मेरा अभिवादन किया। मैंने भी मुस्कुरा कर उसके अभिवादन का जवाब दिया, फिर दुकान पर इधर उधर देखने के बाद उस युवक से पूछा… क्यों भाईसाहब, यहां पर कोई मेहरोत्रा जी बैठते थे, नाम तो याद नहीं उनका, पर… उनकी बड़ी बड़ी मूछें थी और उनकी हाईट भी काफी अच्छी थी।
मेरे ठीक पीछे एक फोटो की तरफ इशारे करते हुए उस युवक ने पूछा – क्या आप उनकी बात तो नहीं कर रहे? मैं पीछे मुड़कर देखा, हां जी, बिल्कुल। मैं तब से दुकान में इन्हें ही तलाश कर रहा था। पर… ये इनकी तस्वीर पर माला कैसे…? क्या इनका देहांत हो गया?
जी, ये मेरे परदादा जी हैं। मैंने तो इन्हे देखा ही नहीं है, पर ये दुकान और फैक्टरी, इन्होंने ही स्थापित की थी।
परदादा… मतलब करीब 90-100 साल पहले… मैं मन ही मन हिसाब लगा रहा था कि बीच में ही उस युवक ने मुझसे पूछा – पर भाईसाहब, आप कैसे जानते हैं उनको? नहीं कुछ नहीं, बस किसी ने उनके बारे में बताया था। कपड़ों का नया काम शुरू करना था, कुछ सामान चाहिए थे, तो सोचा उन्हीं की दुकान से लेता चलूं। मैंने बात टालकर कहा, आप मेरे लिए ये सामान निकलवा दीजिए। जी जरूर, आइए, इस तरफ आइए।
खरीददारी कर मैं शाम 7 बजे तक घर वापस आ गया। पापा घर पर ही थे। नंदकिशोर, हो गई शॉपिंग। तो अपना ये ऑनलाइन बिजनेस कब से शुरू करने का सोच रहे हो? जी पापा वो मैं सोच रहा था कि कुछ ड्रेस मैं रेडी कर लेता, फिर 14 जनवरी मकर संक्रांति के दिन शुभारंभ कर देते।
अरे वाह, ये बहुत अच्छी बात है। संक्रांति का दिन भी बहुत शुभ है। तो फिर एक काम करते हैं, मैं अपने ऑफिस स्टाफ को आमंत्रित करता हूं, त्योहार में थोड़ी रौनक भी हो जाएगी और तुम्हारा प्रचार भी हो जाएगा। क्यों गीता, तुम्हारा क्या ख्याल है। जी ये तो बहुत अच्छा विचार है।
क्रमशः … चंदा (कहानी सीरीज भाग – 5)