चंदा (कहानी सीरीज, भाग – 1) से आगे …
शाम के 4 बज रहे थे, और हम अपने गंतव्य स्टेशन वाराणसी पहुंचने वाले थे।
चंदा… इधर आकर देखो… वो देखो, खिड़की के उस तरफ… वो, वहां पर। है ना… दिखा तुम्हे?
नंदू मुझसे ट्रेन की खिड़की के बाहर इशारे कर कुछ दिखाने की कोशिश कर रहा था।
क्या…? क्या नंदू..? क्या दिखाना चाह रहे हो तुम? मुझे तो कुछ नहीं दिख रहा। मैंने इधर उधर देखते हुए कहा, फिर प्यार से उसकी तरफ सिर बाएं दांए (न करते हुए) हिलाते हुए देखा।
अरे उधर, उधर देखो तो… वो। नंदू उंगलियों से बाहर की तरफ इशारा करते हुए फिर से ट्रेन की खिड़की के बाहर की तरफ देखने को कहा। वो देखो, कितना प्यारा घर है न छोटा सा…उधर तालाब के पास। और देखो, वहां गाय और भैंसे भी हैं। वो उस ट्रैक्टर के पास। तालाब में वो दो नारियल के पेड़। कितना सुन्दर है ना सब।
मैंने मुस्कुरा कर कहा, अच्छा हां। तुम उस घर की बात कर रहे थे। (मैं इसलिए मुस्कुरा रही थी क्योंकि मैं पहले ही समझ गई थी कि नंदू क्या दिखाना चाह रहा है। नंदू एक प्यारा लड़का है। उसके बहुत सारे सपने हैं जिसे वो हमेशा जागते हुए देखता है, या यूं कहें कि वो अपने सपनों को जीता है।)
पता है चंदा, कल जब सब पैकिंग कर रहे थे, मेरा मन बहुत उदास था। ऐसा लग रहा था जैसे हम तुम समुंदर के किनारे बैठे हुए हैं, शाम ढलने को है और अचानक एक तेज लहर आकर मुझे अपने साथ खींचकर ले जा रही है। भला कोई अपनी सांसों के बिना कैसे जी सकता है?
नंदू मेरे बाएं हाथ को अपने बाएं हाथ के ऊपर रखकर दाएं हाथ से सहलाते हुए ऐसी बातें कर रहा था, और मैं बस उसके मासूम चेहरे को निहार रही थी। कितने दिनों के बाद ये फ़ुरसत का लम्हा आया है और हम दोनों इस तरह बातें कर रहे हैं।
नंदू चल उठ, वाराणसी पहुंच गए हम। चल जूते पहन जल्दी से और ये… ये वाला बैग उठा। मम्मी की आवाज जैसे ही मेरे कानों पर पड़ी, मैं झट से उठ बैठा। फिर अपने हाथों को निहारा जो कुछ समय पहले चंदा के हाथों में थे। इधर उधर देखा, सब यात्री उतरने की तैयारी कर रहे थे। हम वाराणसी स्टेशन पर प्लेटफॉर्म नं 1 की तरफ चल दिए जहां पापा के ऑफिस से कोई रिसीव करने आने वाले थे।
क्रमशः … चंदा (कहानी सीरीज भाग – 3)