चंदा (कहानी सीरीज, भाग – 1)



अरे नंदू, काम पर नहीं गया आज? क्यों? तबियत ठीक नहीं है क्या? मम्मी हैं घर पर? पापा ऑफिस चले गए?
मेरे पड़ोस में रहने वाली सरिता आंटी ने एकाएक इतने सारे सवाल पूछ दिए मुझे मेरे घर के बाहर अकेला बैठा हुआ देखकर।
मैंने जवाब में बस इतना ही कहा – नहीं आंटी, तबियत ठीक है।
उन्होंने फिर से पूछा – पापा गए क्या ऑफिस? और मम्मी घर पर हैं? 
मैंने कहा – हां, मम्मी घर पर हैं और पापा भी।
अरे, पापा नहीं गए ऑफिस अब तक? सब ठीक तो है न घर पर? आंटी ने फिर पूछा।
मैंने उदास मन से कहा – हां, सब ठीक है। पापा का प्रोमोशन हो गया है, इसलिए हम आज जा रहें हैं दूसरे शहर।
आंटी ने कहा – अच्छा, ये तो बहुत अच्छी खबर है। पर तू मुंह लटकाए क्यों बैठा है? 
बस ऐसे ही, यह कहकर मैं दूसरी तरफ देखने लग गया। आंटी भी फिर थोड़ी देर खड़े रहकर अंदर अपने घर चली गई। मैं सरिता आंटी के घर की तरफ मायूसी से देखने लग गया। 
नंदकिशोर, नंदकिशोर…कहां गया। अरे अपने सामान तो पैक करवा ले। क्या रखना, क्या छोड़ना है, बता जा उसके बाद फिर कहेगा कि मेरा ये छूट गया, मेरा वो रह गया।
पापा अंदर से चिल्ला रहे थे पर मुझे कुछ सुनाई ही नहीं दे रहा था। मैं बस एक टक सरिता आंटी के घर की तरफ देख तो रहा था पर कहीं और खोया हुआ था। न तो कुछ देख रहा था न ही कुछ सुन पा रहा था।
कि अचानक मैंने देखा मम्मी एकदम मेरे सामने खड़ी थी। बोली, नंदू बेटा, पापा कब से तुझे आवाज दे रहे हैं और तू चुपचाप बैठा है यहां पर।
मैंने कोई जवाब नहीं दिया।
मम्मी समझ गई थी कि मेरा मन उदास है, और मैं नई जगह जाना नहीं चाहता।
मम्मी ने कहा, क्यों नंदू..? तू तो कहता था कि चलो दूसरे शहर शिफ्ट हो जाते हैं। यहां तेरा मन नहीं लगता अब। बड़े शहर में ही नया काम शुरू करूंगा। फिर क्यों उदास है तू?
मैंने कहा – नहीं, कहां उदास हूं मैं। ठीक हूं। क्यों बुला रहे हैं पापा?
अरे, वो तेरा सामान पैक करना है न, इसलिए। चल आ अंदर, देख कर बता दे क्या क्या ले जाना है और क्या छोड़ना है?
सामान पैक करवाते समय भी मैं अपने ख्यालों में ही खोया हुआ था। दो तीन बार पूछने पर ही मुझे कुछ सुनाई देता था। आखिर पैकिंग हो गई, और हम लोग शाम की ट्रेन से चल दिए। 
ये ट्रेन की पटरी, कैसे एक दूसरे के आमने सामने रहती है। साथ साथ चलते हैं, पर कभी मिलते ही नहीं। क्या हमारे साथ भी ऐसा ही होगा? मेरे खोए हुए मन में जज्बातों की लहरें उमड़ रही थी। 
नंदू… नंदू… आ चल खाना खाते हैं। ऐसा लगा जैसे ट्रेन की खिड़की से बाहर चंदा ने आवाज लगाई। मैं सपने से बाहर आया तो देखा मम्मी खाना निकाल रही है और पापा मेरी तरफ खाने की प्लेट बढ़ाते हुए कह रहे हैं, लो खाना खा लो, काफी देर हो चुकी है।
खाना खाकर सब सोने लगे। पर रोज की तरह मुझे नींद कहां आनी थी। रात में मुझे ट्रेन की आवाजें ऐसी लग रही थी मानो समुद्र की लहरें तट पर आकर चट्टानों पर थपेड़े मार रही हो। करवटें बदलता रहा, रात कट ही नहीं रही थी। 
सुबह हुई… सूर्य की पहली किरण, खिड़की से मेरी अधखुली आंखों पर पड़ी जैसे चंदा चाय की प्याली लिए खड़ी हो। मैं मुस्कुराता हुआ झट से उठ बैठा। और कहा, बड़ी देर कर दी आने में। जवाब मिला – अरे बेटा, अभी तो सुबह हुई है। सब लोग उठे भी नहीं हैं। और कितनी जल्दी आता चाय लेकर। मैं इधर उधर देखा और फिर चाय देने वाले की तरफ देखा… खाकी ड्रेस पहने हुए हट्टे कट्टे बड़ी मूंछों वाले अंकल आश्चर्य से मुझे देख रहे थे।
नहीं कुछ नहीं, मैंने पैंट की जेब से पैसे निकालकर उनकी तरफ बढ़ाते हुए कहा – वो क्या है कि रात नींद नहीं आई ठीक से, इसलिए समझ नहीं आया कुछ। पैंट्री कार वाले चाय वाले अंकल चाय – चाय बोलते हुए आगे चल दिए।

शाम के 4 बज रहे थे, और हम अपने गंतव्य स्टेशन वाराणसी पंहुचने वाले थे। 

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