बस चाहा है ये, ज्यादा तो नहीं

सुबह हो जब, तेरी आंखें खुले,
मिलकर गले, मेरी नींद खुले,
ऐ हमदम मेरे, ओ साथी मेरे,
बस चाहा है ये, ज्यादा तो नहीं।
हांथो से अपने, लट जो संवारा,
कानों के पीछे, वो चिलमन से झांके,
बांध के जूड़ा, लगे मन को फिर ये,
कि बांधा है तूने, कोई भंवरा आवारा,
साड़ी के पल्लू में, लटके ये लटकन,
बजे जैसे हों मेरे, दिल की ये धड़कन,
ए हमदम मेरे, ओ साथी मेरे,
बस चाहा है ये, ज्यादा तो नहीं।
चाय की प्याली, फिर मेज में रखकर,
पुकारे मुझको दिल, प्यार से भरकर,
मुस्काना फिर तुम, जब नजरें मिले,
शर्माना फिर तुम, जब नजरें झुके,
ए हमदम मेरे, ओ साथी मेरे,
बस चाहा है ये, ज्यादा तो नहीं।
शाम को फिर जब, मिले चार पल, 
बातें हों बस, दिल खोल कर,
तुम कहते रहना, मैं जी भर के देखूं,
तुम हस्ते रहना, मैं जी भर के देखूं,
ए हमदम मेरे, ओ साथी मेरे,
बस चाहा है ये, ज्यादा तो नहीं।

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